कैसे उस स्थिति को मैनेज करें जब कोई आपके साथ बुरा वर्ताव करें?
यदि इंसान अपने देखने के भीतरी दृष्टिकोण को बदल ले तो बाहर सब कुछ अच्छा और सुन्दर नजर आएगा.जैसा हम स्वयं होते हैं वैसा ही हमें सर्वत्र नजर आने लगता है.सीधी सी बात है जैसा आँखों पर चश्मा लगा होगा वैसा ही हमें नजर आने लगता है.संसार में बहुत लोगों को केवल बुराईयाँ, दोष और गलत चीजें ही नजर आती हैं,यह सब उनकी कट्टर धारणा के कारण होता है.अगर स्वयं ईश्वर भी उनके सामने आकर प्रकट हो जाएँ तो उनमें भी सबसे पहले उन्हें दोष ही नजर आएगा.संसार में अच्छे, सज्जन,सत्कर्मी और श्रेष्ठ लोग भी बहुत हैं.दोष दर्शन की जगह यदि हम सभीमें गुण दर्शन करने लग जाएँ तो हमारा स्वयं का विकास तो होगा ही साथ ही दुनिया भी बड़ी खूबसूरत नजर आने लगेगी.सब नज़रिए पर ही तो निर्भर है,जब तक आप स्वयं में शांत और स्थिर नहीं तब तक आपको दुनिया में शांति और स्थिरता कैसे नज़र आएगी?
जैसे एक बीमार मनुष्य को हर तरफ रोग और पीड़ाएँ ही नज़र आती हैं और उसके अंदर चिड़चिड़ापन आ जाता है यानी कि ये परिवर्तन उसके आंतरिक मन से ही तो उत्पन्न हुए.जैसे बीमारी ने उसके मन को पीड़ा से भर दिया वेसे ही उसका स्वभाव भी बदल गया.उसी प्रकार आंतरिक दुर्भावनाएं बाहरी दुनिया में भी वही महसूस करती हैं जैसा मनुष्य आंतरिक सोच रखता है,ये मनुष्य के स्वयं के व्यवहार पर निर्भर करता है कि वो खुदको किस मनोवृत्ति का बनाने में विश्वास रखता है.क्रोध आपका ऐसा हुनर है,जिसमें फँसते भी आप है,उलझते भी आप है,पछताते भी आप है,पिछड़ते भी आप हैं और अपनों से बिछड़ते भी आप हैं.तो क्या आप इस से बच सकते हैं,शायद नहीं लेकिन अपने मन को समझने और समझाने से आप स्वयं में काफी परिवर्तन ला सकते हैं परंतु दूसरों मैं नहीं,और सच तो ये ही है कि यही तो आपको करना है.शांत,स्थिर और प्रसन्न,जैसे कि सब कुछ वैसा ही हो रहा है जैसा इसे होना चाहिए.
कुदरत का नियम है जैसे ही आप किसी चीज़ के पात्र हो जाते हैं वो चीज़ आपको खुद ब खुद मिल जाती है फिर आपको मांगना नहीं पढ़ता,उदाहरण के तौर पर,पैसा कहां जाता है,जाहिर है जिसके पास काबिलियत होती है,अब ये काबिलियत किसी भी प्रकार की हो सकती है जैसे कुछ ईमान से कमाने में यकीन रखते हैं कुछ हमेशा बेईमानी से.कभी-कभी किसी की बात हमें कष्ट पहुँचाती है तो क्या करें?इतना तो समझ ही लें कि आप उनको नहीं समझा सकते जिनकी बातों ने आपको दुःख पहुँचाया हो,पर आप अपने आपको तो समझा ही सकते हैं.अपने आपको समझा लिया तो सबको समझाने की आवश्यकता ही खत्म हो जाती है.क्योंकि उस वक़्त जो हमारे अंदर बदले की भावना निकलती है कि नहीं उसने मेरे साथ इतना बुरा किया तो अब मुझे भी उसके साथ वही करना है तभी मेरी अंतर-आत्मा को ठंडक मिलेगी.फिर क्या है लड़ाई झगड़े और अंत में अशांति के बाद शांति.शांति ही तो हर व्यथित मन का अंतिम लक्ष्य है,अशांत रहकर तो कोई कार्य क्यों करना चाहेगा?
प्रकृति सर्वथा उत्तम चुनती है अपने हिसाब से,जब संबंधित व्यक्ति आपके साथ बुरा व्यवहार करे तब आपके अंदर ये भावना आनी चाहिए कि नहीं अबतो कुछ न कुछ ऐसा ज़िन्दगी में करके दिखा दूँगा या दिखा दूंगी क़ि अगली बार जब आमना सामना हो तो उसे ये महसूस हो कि वाकई में उसने ऐसा व्यवहार गलत इंसान से कर दिया था और आप वजाय लड़ाई झगड़े में समय नष्ट करके इसे अपने लिए उपयोगी बना सकते हैं.अर्थात वजाय बदले की भावना से बदलाव की भावना पर कार्य किया जाना चाहिए.
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