लोग जीवन से हार क्यों मानते हैं?
निराशा एक ऐसी भावना है जिसके बाद कोई शुरुआत नहीं होती,जब व्यक्ति अंदर से टूट जाता है तो सबकुछ व्यर्थ लगता है,जैसे कि अब कुछ बचा ही नहीं करने को.जीवन आपका खुदका है,अगर आपको सुई भी चुभाई जाती है तो इसका दर्द सिर्फ आप महसूस करते हैं न कि कोई और.आप बस अपने अनुभव को दूसरों को बता सकते हैं पर जो आपको महसूस होता है वो किसी को नहीं होता.सवाल ये है कि कोई भी व्यक्ति जीवन से हार कब मानता है?जब सारी संभावनाएं खत्म लगती हैं तभी एक व्यक्ति जीवन से हार मान लेता है.हैं न?लेकिन क्या ये सच्चाई है?अगर आप स्वयं के भीतर जीवित हैं तो संभावनाएं खत्म कैसे हो सकती हैं?आपने खुदको कमजोर सिर्फ इसलिए समझ लिया कि आप दूसरों से बेहतर कभी नहीं कर सकते,क्या ऐसा है?लेकिन आप देख भी तो उसी चीज़ को रहे हैं जिसे आप खुदसे बेहतर मान रहे हैं.आपने प्रयास किया लेकिन काम वैसा नहीं हुआ जैसा आप चाहते थे,तो क्या आप संभावनाओं को खत्म समझेंगे?संभावनाएं किसी चीज़ के अस्तित्व से जुड़ी होती हैं.अगर आप अपने आस-पास किसी पेड़ को देखेंगे मान लीजिए वो आम का पेड़ है तो आप उस पेड़ से आम के फलों की संभावनाओं को देखेंगे अगर वहां कोई दूसरा पेड़ है तो उस तरह के फूलों या फलों की संभावनाओं को देखेंगे,लेकिन अगर वहां कुछ है ही नहीं तो पेड़ के बारे में संभावनाओं को नहीं देखेंगे,लेकिन फिर भी एक नए पौधे को लगाने की संभावना वहाँ जरूर हो सकती है.
इस बात का अर्थ है कि संभावनाएं सिर्फ एक स्तर तक नहीं होतीं वल्कि वे दूसरी तरह की व्यवस्था या आयाम में भी होती हैं,आपको बस उन्हें खुदके लिए बेहतर तरीके से खोजकर चुनना होता है.अगर आप ऐसा कर लेते हैं तो परिस्थितियां धीरे-धीरे बदलाव लाती हैं और चीजें बेहतर होना शुरू हो जाती हैं.आप बाकी सारी चीजों के लिए दिमाग लगा सकते हैं लेकिन जीवन सिर्फ और सिर्फ जीने के लिए है,जीवन जीना ही जीवन का उद्देश्य है,आप इसे शान से जियें या या घुट-घुट कर,किसी और को कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला.लोग सांत्वना दे सकते हैं परंतु इसे बेहतर बनाना है तो ये आपकी खुदकी रणनीतियों और बेहतर प्रदर्शन पर तय होता है.
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